'पुरुष' शब्द का अर्थ है सर्वशक्तिमान ईश्वर। यह सूक्तम भगवान की महिमा का गुणगान है। अनुष्ठान और समारोहों के दौरान घरों, पूजा स्थलों में इसका जाप किया जाता है। इसे पढ़कर किसी के जीवन पर आशीर्वाद प्राप्त होता है। यज्ञ करने से पहले ऋषियों द्वारा इस मंत्र का जाप किया जाता है ताकि यज्ञ के दौरान कोई बाधा या बाधा न आए ।
पुरुष सूक्त के शीर्षक में पुरु को परम पुरुष, पुरुषोत्तम, नारायण को विराट पुरुष के रूप में संदर्भित किया गया है। वह सारी सृष्टि का स्रोत था। यह उनके इस रूप का वर्णन करता है, जैसे कि अनगिनत सिर, आंखें, पैर, हर जगह प्रकट होते हैं, और किसी भी सीमित विधि के दायरे से परे। सारी सृष्टि लेकिन उसका एक चौथाई हिस्सा है। बाकी अव्यवस्थित है।
चूँकि पुरष सूक्तम को सभी वेदों में देखा जाता है, इसलिए इसे महाभारत में वेद व्यास द्वारा सभी श्रुतियों के सार के रूप में उद्धृत किया गया है। सौनाका, आपस्तम्ब, और बोधायन ने भी पुरुष सूक्तम के उपयोग के विषय में लिखा है।
पुरुष सूक्तं के लाभ
ॐ ॥ पुरुष सूक्त ॥ ॐ
ॐ सहस्र शीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्र पात्।
स भूमिम् सर्वत स्पृत्वा ऽत्यतिष्ठद् दशांगुलम्॥1॥
जो सहस्रों सिरवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले विराट पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्माँड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं।।1।।
पुरुषऽ एव इदम् सर्वम् यद भूतम् यच्च भाव्यम्।
उत अमृत त्वस्य ईशानो यद् अन्नेन अतिरोहति॥2॥
जो सृष्टि बन चुकी, जो बनने वाली है, यह सब विराट पुरुष ही हैं। इस अमर जीव-जगत के भी वे ही स्वामी हैं और जो अन्न द्वारा वृद्धि प्राप्त करते हैं, उनके भी वे ही स्वामी हैं।।2।।
एतावानस्य महिमातो ज्यायान्श्र्च पुरुषः।
पादोस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्य अमृतम् दिवि॥3॥
विराट पुरुष की महत्ता अति विस्तृत है। इस श्रेष्ठ पुरुष के एक चरण में सभी प्राणी हैं और तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में स्थित हैं।।3।।)
त्रिपाद् उर्ध्व उदैत् पुरूषः पादोस्य इहा भवत् पुनः।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत् साशनानशनेऽ अभि॥4॥
चार भागों वाले विराट पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार, जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है। इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में समाये हुए हैं।।4।।
ततो विराड् अजायत विराजोऽ अधि पुरुषः।
स जातोऽ अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिम् अथो पुरः॥5॥
उस विराट पुरुष से यह ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ। उस विराट से समष्टि जीव उत्पन्न हुए। वही देहधारीरूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को, फिर शरीरधारियों को उत्पन्न किया।।5।।
तस्मात् यज्ञात् सर्वहुतः सम्भृतम् पृषदाज्यम्।
पशूँस्ताँश् चक्रे वायव्यान् आरण्या ग्राम्याश्च ये॥6॥
(उस सर्वश्रेष्ठ विराट प्रकृति यज्ञ से दधियुक्त घृत प्राप्त हुआ (जिससे विराट पुरुष की पूजा होती है)। वायुदेव से संबंधित पशु हरिण, गौ, अश्वादि की उत्पत्ति उस विराट पुरुष के द्वारा ही हुई।।6।।)
तस्मात् यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे॥
छन्दाँसि जज्ञिरे तस्मात् यजुस तस्माद् अजायत॥7॥
उस विराट यत्र पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद का प्रकटीकरण हुआ। उसी से यजुर्वेद एवं अथर्ववेद का प्रादुर्भाव हुआ अर्थात् वेद की ऋचाओं का प्रकटीकरण हुआ।।7।।
तस्मात् अश्वाऽ अजायन्त ये के चोभयादतः।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात् तस्मात् जाता अजावयः॥8॥
उस विराट यज्ञ पुरुष से दोनों तरफ दाँतवाले घोड़े हुए और उसी विराट पुरुष से गौएँ, बकरियाँ और भेड़ें आदि पशु भी उत्पन्न हुए।।8।।
तम् यज्ञम् बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषम् जातम अग्रतः।
तेन देवाऽ अयजन्त साध्याऽ ऋषयश्च ये॥9॥
मंत्रद्रष्टा ऋषियों एवं योगाभ्यासियों ने सर्वप्रथम प्रकट हुए पूजनीय विराट पुरुष को यज्ञ (सृष्टि के पूर्व विद्यमान महान ब्रह्मांडरूप यज्ञ अर्थात् सृष्टि यज्ञ) में अभिषिक्त करके उसी यज्ञरूप परम पुरुष से ही यज्ञ (आत्मयज्ञ) का प्रादुर्भाव किया।।9।।
यत् पुरुषम् व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्॥
मुखम् किमस्य आसीत् किम् बाहू किम् ऊरू पादाऽ उच्येते॥10॥
संकल्प द्वारा प्रकट हुए जिस विराट पुरुष का ज्ञानी जन विविध प्रकार से वर्णन करते हैं, वे उसकी कितने प्रकार से कल्पना करते हैं ? उसका मुख क्या है ? भुजा, जाँघें और पाँव कौन से हैं ? शरीर-संरचना में वह पुरुष किस प्रकार पूर्ण बना ?।।10।।
ब्राह्मणो ऽस्य मुखम् आसीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याँ शूद्रो अजायत॥11॥
विराट पुरुष का मुख ब्राह्मण अर्थात ज्ञानीजन (विवेकवान) हुए। क्षत्रिय अर्थात् पराक्रमी व्यक्ति, उसके शरीर में विद्यमान बाहुओं के समान हैं। वैश्य अर्थात् पोषणशक्ति-सम्पन्न व्यक्ति उसके जंघा एवं सेवाधर्मी व्यक्ति उसके पैर हुए।।11।।
चन्द्रमा मनसो जातः चक्षोः सूर्यो अजायत।
श्रोत्राद् वायुश्च प्राणश्च मुखाद् ऽग्निर अजायत॥12॥
विराट पुरुष की नाभी से अंतरिक्ष, सिर से द्युलोक, पाँवों से भूमि तथा कानों से दिशाएँ प्रकट हुई। इसी प्रकार (अनेकानेक) लोकों को कल्पित किया गया है (रचा गया है)।।13।।)
नाभ्याऽ आसीद् अन्तरिक्षम् शीर्ष्णो द्यौः सम-वर्तत।
पद्भ्याम् भूमिर दिशः श्रोत्रात् तथा लोकान्ऽ अकल्पयन्॥13॥
जब देवों ने विराट पुरुष को हवि मानकर यज्ञ का शुभारम्भ किया, तब घृत वसंत ऋतु, ईंधन (समिधा) ग्रीष्म ऋतु एवं हवि शरद ऋतु हुई।।14।।
यत् पुरुषेण हविषा देवा यज्ञम् ऽतन्वत।
वसन्तो अस्य आसीद् आज्यम् ग्रीष्मऽ इध्मः शरद्धविः॥14॥
जब देवों ने विराट पुरुष को हवि मानकर यज्ञ का शुभारम्भ किया, तब घृत वसंत ऋतु, ईंधन (समिधा) ग्रीष्म ऋतु एवं हवि शरद ऋतु हुई।।14।।
सप्तास्या आसन् परिधय त्रिः सप्त समिधः कृताः।
देवा यद् यज्ञम् तन्वानाः अबध्नन् पुरुषम् पशुम्॥15॥
देवों ने जिस यज्ञ का विस्तार किया, उसमें विराट पुरुष को ही पशु (हव्य) रूप की भावना से बाँधा (नियुक्त किया), उसमें यज्ञ की सात परिधियाँ (सात समुद्र) एवं इक्कीस (छंद) समिधाएँ हुईं।।15।।
यज्ञेन यज्ञम ऽयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्य आसन्।
ते ह नाकम् महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥16॥
आदिश्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने यज्ञ से यज्ञरूप विराट सत्ता का यजन किया। यज्ञीय जीवन जीने वाले धार्मिक महात्माजन पूर्वकाल के साध्य देवताओं के निवास स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं।।16।।
एक टिप्पणी भेजें