प्रदोष व्रत कथा Pradosh Vrat Katha
प्रदोष व्रत का महत्व : सायंकाल के बाद और रात्रि आने के पूर्व दोनों के बीच का जो समय है उसे प्रदोष कहते है | व्रत करने वाले व्यक्ति को उसी समय भगवान शंकर का पूजन करना चाहिए | त्रयोदशी अर्थात प्रदोष का व्रत करने वाला मनुष्य सदा सुखी रहता है | इस व्रत से उसके सम्पूर्ण पापो का नाश हो जाता है | सूतजी कहते है की प्रदोष का व्रत करने वालों को सौ गाय के दान का फल प्राप्त होता है | इस व्रत को जो विधि विधान से करता है उसके सभी दुःख दूर हो जाते हैं |
प्रदोष व्रत पूजन व उद्यापन विधि :
प्रदोष व्रत करने वाले व्यक्ति को त्रयोदशी के दिन, दिन भर भोजन नहीं करना चाहिए | शाम के समय जब सूर्यास्त में तीन घडी का समय शेष रह जाए , तब स्नानादि कर्मो से निवृत्त होकर, श्वेत वस्त्र धारण करके तत्पश्चात संद्यावंदन करने के बाद शिवजी का पूजन करें |
पूजा के स्थान को स्वच्छ जल से धोकर वहां मंडप बनाये , वहां पांच रंगो के पुष्पों से पद्म पुष्प की आकृति बनाकर कुश का आसन बिछायें , आसन पर पूर्वाभिमुख बैठे | इसके बाद महेश्वर का ध्यान करें |
प्रदोष व्रत के उद्यापन का तरीका सभी वारों की व्रत कथा के बाद अंत में बताया गया है |
प्रदोष व्रत कथा : व्रत करने वाले मनुष्य को त्रयोदशी जिस वार को पड़ी है उसके अनुसार कथा पड़नी चाहिए अर्थात यदि त्रयोदशी रविववार को पड़ी है तो रवि प्रदोष व्रत कथा का पाठ करें |
रवि प्रदोष व्रत कथा ( रविवार त्रयोदशी ) :
आयु वृद्धि आरोग्यता , या चाहो संतान |
शिव पूजन विधिवत करो, दुःख हरें भगवान ||
एक समय सर्व प्राणियों के हितार्थ परम पावन भागीरथी के तट पर ऋषि समाज द्वारा विशाल गोष्ठी का आयोजन किया गया। विज्ञ महर्षियों की एकत्रित सभा में व्यास जी के परम शिष्य पुराणवेत्ता सूत जी महाराज हरि कीर्तन करते हुए पधारे। सूत जी को आते हुए देखकर शौनकादि अट्ठासी हजार ऋषि मुनियों ने खड़े होकर दंडवत प्रणाम किया ।महाज्ञानी सूतजी ने भक्ति भाव से ऋषियों को ह्रदय से लगाया तथा आशीर्वाद दिया। विद्वान ऋषिगण और सब शिष्य आसनों पर विराजमान हो गये।
मुनिगण विनीत भाव से पूछने लगे कि हे परम दयालु ! कलिकाल में शंकर की भक्ति किस आराधना द्वारा प्राप्त होगी, हम लोगों को बताने की कृपा किजिए, क्योंकि कलियुग के सर्व प्राणी पाप कर्म में रत रहकर वेद्शास्त्रों से विमुख रहेंगे। दीनजन अनेकों संकटों से त्रस्त रहेंगे। हे मुनिश्रेष्ठ ! कलिकाल में सत्कर्म की ओर किसी की रूचि न होगी। जब पुण्य क्षीण हो जायेंगे तो मनुष्य की बुद्धि असत कर्मों की ओर खुद ब खुद प्रेरित होगी जिससे दुर्विचारि पुरुष वंश सहित समाप्त हो जायेंगे। इस अखिल भूमण्डल पर जो मनुष्य ज्ञानी होकर ज्ञान की शिक्षा नहीं देता, उस पर परमपिता परमेश्वर कभी प्रसन्न नहीं होते हैं।हे महामुने! ऐसा कौन सा उत्तम व्रत है जिससे मनवांछित फल की प्राप्ति होती हो, आप कृपाकर बतलाइये। ऐसा सुनकर दयालु हृदय, श्रीसूत जी कहने लगे- कि हे श्रेष्ठ मुनियों तथा शौनक जी! आप धन्यवाद के पात्र हैं। आपके विचार सराहनीय एवं प्रशंसनीय हैं। आप वैष्णव अग्रगण्य हैं क्योंकि आपके हृदय में सदा परहित की भावना रहती है, इसलिये हे शौनकादि ऋषियों , सुनो - मैं उस व्रत को तुमसे कहता हूँ जिसके करने से सब पाप नष्ट हो जाते हैं। धन, वृद्धिकारक, दु:ख विनाशक, सुख प्राप्त करनेवाला, संतान देनेवाला, मनवांछित फल प्राप्ति करने वाला यह व्रत तुमको सुनाता हूँ, जो किसी समय भगवान शंकर ने माता सती को सुनाया था और उनसे प्राप्त यह परम श्रेष्ठ उपदेश मेरे परम, पूज्य गुरु वेदव्यास जी ने मुझे सुनाया था। जिसे आपको समय पाकर शुभ बेला में मैं सुनाता हूँ। बोलो उमापति शंकर भगवान की जय । सूतजी कहने लगे कि आयु, वृद्धि, स्वास्थ्य लाभ हेतु त्रयोदशी का व्रत करें। इसकी विधि इस प्रकार है- प्रात: स्नान कर निराहार रहकर, शिव ध्यान में मग्न हो, शिव मंदिर में जाकर शंकर जी की पूजा करें। पूजा के पश्चात् अर्द्ध पुण्य त्रिपुण्ड का तिलक धारण करें, बेल पत्र चढ़ावें, धूप, दीप, अक्षत से पूजा करें। ऋतु फल चढ़ावें तथा “ ऊँ नम: शिवाय ” मंत्र का रुद्राक्ष की माला से जप करें। ब्राह्मणों को भोजन कर सामर्थ्यानुसार दक्षिणा दें। तत्पश्चात् मौन व्रत धारण करें, व्रती को सत्य वचन बोलना आवश्यक है, हवन और आहुति भी देनी चाहिये। “ऊँ ह्रीं क्लीं नम: शिवाय स्वाहा ” मंत्र से आहुति दें। इससे अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। व्रती को पृथ्वी पर शयन करना चाहिये, दिन में एक बार हीं भोजन करे ,इससे सर्व कार्य सिद्ध होते हैं। श्रावण मास में तो इसका विशेष महत्व है। यह सर्वसुख धन, आरोग्यता देनेवाला एवं सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाला व्रत है। शौनकादि ऋषि बोले- “हे पुज्यवर महामते ! आपने यह व्रत परम गोपनीय मंगलप्रद, कष्ट निवारक बतलाया है। कृपया यह बताने का कष्ट करें कि यह व्रत सबसे पहले किसने किया और उसे क्या फल प्राप्त हुआ? ” श्री सूत जी बोले- “हे विचारवान् ज्ञानियों! आप शिव के परम भक्त हैं, आपकी भक्ति को देखकर मैं व्रती मनुष्यों की कथा कहता हूँ। ध्यान से सुनो ।” एक गाँव में अति दीन ब्राह्मण निवास करता था। उसकी साध्वी स्त्री प्रदोष व्रत किया करती थी, उसे एक ही पुत्र रत्न था। एक समय की बात है वह पुत्र गंगा स्नान करने के लिये गया। दुर्भाग्यवश मार्ग में चोरों ने उसे घेर लिया और वे कहने लगे कि हम तुम्हें मारेंगे, नहीं तो तुम अपने पिता के गुप्त धन के बारे में हमें बतला दो। बालक दीन भाव से कहने लगा कि बंधुओं! हम अत्यंत दु:खी दीन हैं। हमारे पास धन कहाँ है? तब चोरों ने कहा- “तेरे इस पोटली में क्या बंधा है? ” बालक ने नि:संकोच कहा- “मेरी माँ ने मेरे लिये रोटियाँ दी हैं। ”यह सुनकर चोर ने अपने साथियों से कहा- “साथियों ! यह बहुत ही दीन दु:खी मनुष्य है। अत: हम किसी और को लूटेंगे।” इतना कहकर चोरों ने उस बालक को जाने दिया। बालक वहाँ से चलते हुए एक नगर में पहुँचा । नगर के पास एक बरगद का पेड़ था। वह बालक उसी बरगद के वृक्ष की छाया में सो गया । उसी समय ,उस नगर के सिपाही चोरों को खोजते हुए उस बरगद के वृक्ष के पास पहुँचे और बालक को चोर समझकर बंदी बना राजा के पास ले गये। राजा ने उसे कारावास में बंद करने का आदेश दिया। ब्राह्मणी का लड़का जब घर नहीं लौटा, तब उसे अपने पुत्र की बड़ी चिता हुई। अगले दिन प्रदोष व्रत था, ब्राह्मणी ने प्रदोष व्रत किया और भगवान शंकर से मन-ही-मन अपने पुत्र के कुशलता की प्रार्थना करने लगी। भगवान शंकर ने उस ब्राह्मणी की प्रार्थना स्वीकार कर ली।उसी रात भगवान शंकर ने उस राजा को स्वप्न में आदेश दिया कि वह बालक चोर नहीं है, उसे प्रात: काल छोड़ दें, अन्यथा उसका सारा राज्य-वैभव नष्ट हो जायेगा। प्रात:काल राजा ने शिव जी की आज्ञानुसार उस बालक को कारावास से मुक्त कर दिया । बालक ने अपनी सारी कहानी राजा को सुनाई। सारा वृतांत सुनकर, राजा ने अपने सिपाहियों को उस बालक के घर भेजा और उसके माता-पिता को राज दरबार में बुलाया। उसके माता पिता बहुत हीं भयभीत थे। राजा ने उन्हें भयभीत देखकर कहा- “आप भयभीत न हो। आपका बालक निर्दोष है । ” राजा ने ब्राह्मण को पांच गाँव दान में दिये, जिससे वे सुख पूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सके। भगवान शिव की कृपा से ब्राह्मण परिवार आनंद से रहने लगे। जो भी इस प्रदोष व्रत को करता है ,वह सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करता है। बोलो उमापति श्रीशंकर भगवान की जय। हर-हर महादेव ।
सोमवार प्रदोष कथा ( सोमवार त्रयोदशी )
सूतजी बोले : "एक नगर में एक ब्राह्मणी रहती थी । उसके पति का स्वर्गवास हो गया था । उसका अब कोई आश्रयदाता नहीं था, इसलिए प्रातः होते ही वह अपने पुत्र के साथ भीख मांगने निकल पड़ती थी । भिक्षा से ही वह स्वयं व अपने पुत्र का पेट पालती थी ।
एक दिन ब्राह्मणी भीख मांगकर अपने घर लौट रही थी तो उसे एक लड़का घायल अवस्था में कराहता हुआ मिला । ब्राह्मणी दयावश उसे अपने घर ले आई । वह लड़का विदर्भ का राजकुमार था । शत्रु सैनिकों ने उसके राज्य पर आक्रमण कर उसके पिता को बन्दी बना लिया था और राज्य पर नियंत्रण कर लिया था, इसलिए वह मारा-मारा फिर रहा था । राजकुमार ब्राह्मण-पुत्र के साथ ब्राह्मणी के घर रहने लगा ।
एक दिन अंशुमति नामक एक गंधर्व कन्या ने राजकुमार को देखा और उस पर मोहित हो गई । अगले दिन अंशुमति अपने माता-पिता को राजकुमार से मिलाने लाई । उन्हें भी राजकुमार भा गया । कुछ दिनों बाद अंशुमति के माता-पिता को शंकर भगवान ने स्वप्न में आदेश दिया कि राजकुमार और अंशुमति का विवाह कर दिया जाए। उन्होंने वैसा ही किया ।
ब्राह्मणी प्रदोष व्रत करती थी । उसके व्रत के प्रभाव और गंधर्वराज की सेना की सहायता से राजकुमार ने विदर्भ से शत्रुओं को खदेड़ दिया और पिता के राज्य को पुनः प्राप्त कर आनन्दपूर्वक रहने लगा । राजकुमार ने ब्राह्मण-पुत्र को अपना प्रधानमंत्री बनाया । ब्राह्मणी के प्रदोष व्रत के माहात्म्य से जैसे राजकुमार और ब्राह्मण-पुत्र के दिन फिरे, वैसे ही शंकर भगवान अपने दुसरे भक्तों के दिन भी फेरते हैं।”
बोलो उमापति श्रीशंकर भगवान की जय। हर-हर महादेव ।
मंगलवार प्रदोष व्रत कथा ( मंगलवार त्रयोदशी ) :
सूत जी बताते है- “मंगल त्रयोदशी प्रदोष व्रत व्याधियों का नाश करता है । ऋण से मुक्ति प्रदान करता है, सुख-शान्ति और श्रीवृद्धि करता है।
एक नगर में एक वृद्धा निवास करती थी । उसके मंगलिया नामक एक पुत्र था । वृद्धा की हनुमान जी पर गहरी आस्था थी । वह प्रत्येक मंगलवार को नियमपूर्वक व्रत रखकर हनुमान जी की आराधना करती थी । उस दिन वह न तो घर लीपती थी और न ही मिट्टी खोदती थी । वृद्धा को व्रत करते हुए अनेक दिन बीत गए । एक बार हनुमान जी ने उसकी श्रद्धा की परीक्षा लेने की सोची । हनुमान जी साधु का वेश धारण कर वहां गए और पुकारने लगे -“है कोई हनुमान भक्त जो हमारी इच्छा पूर्ण करे?’ पुकार सुन वृद्धा बाहर आई और बोली- ‘आज्ञा महाराज?’ साधु वेशधारी हनुमान बोले- ‘मैं भूखा हूं, भोजन करूंगा । तू थोड़ी जमीन लीप दे।’ वृद्धा दुविधा में पड़ गई । अंततः हाथ जोड़ बोली- “महाराज! लीपने और मिट्टी खोदने के अतिरिक्त आप कोई दूसरी आज्ञा दें, मैं अवश्य पूर्ण करूंगी ।” साधु ने तीन बार प्रतिज्ञा कराने के बाद कहा- ‘तू अपने बेटे को बुला । मै उसकी पीठ पर आग जलाकर भोजन बनाउंगा ।’ वृद्धा के पैरों तले धरती खिसक गई, परंतु वह प्रतिज्ञाबद्ध थी । उसने मंगलिया को बुलाकर साधु के सुपुर्द कर दिया ।
मगर साधु रूपी हनुमान जी ऐसे ही मानने वाले न थे । उन्होंने वृद्धा के हाथों से ही मंगलिया को पेट के बल लिटवाया और उसकी पीठ पर आग जलवाई । आग जलाकर, दुखी मन से वृद्धा अपने घर के अन्दर चली गई । इधर भोजन बनाकर साधु ने वृद्धा को बुलाकर कहा- ‘मंगलिया को पुकारो, ताकि वह भी आकर भोग लगा ले।’ इस पर वृद्धा बहते आंसुओं को पौंछकर बोली -‘उसका नाम लेकर मुझे और कष्ट न पहुंचाओ।’ लेकिन जब साधु महाराज नहीं माने तो वृद्धा ने मंगलिया को आवाज लगाई । पुकारने की देर थी कि मंगलिया दौड़ा-दौड़ा आ पहुंचा । मंगलिया को जीवित देख वृद्धा को सुखद आश्चर्य हुआ । वह साधु के चरणों मे गिर पड़ी । साधु अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुए । हनुमान जी को अपने घर में देख वृद्धा का जीवन सफल हो गया । सूत जी बोले- “मंगल प्रदोष व्रत से शंकर (हनुमान भी रुद्र हैं) और पार्वती जी इसी तरह भक्तों को साक्षात् दर्शन दे कृतार्थ करते हैं ।” बोलो उमापति शंकर भगवान की जय । हर हर महादेव |
बुधवार प्रदोष कथा ( बुधवार त्रयोदशी ) :
सूत जी बोले- अब मैं आप लोगों को बुधवार त्रयोदशी व्रत की कथा तथा विधि सुनाता हूँ। इस व्रत के दिन केवल एक ही समय भोजन करें। हरे वस्त्र पहनें और हरी वस्तुओं का सेवन करें। प्रात: काल उठकर नित्य क्रम से निवृत हो कर शंकर जी का पूजन धूप-दीप,बेल पत्र से करें।
प्राचीन काल की कथा है, एक पुरुष का नया-नया विवाह हुआ था। वह गौने के बाद दूसरी बार पत्नी को लिवाने के लिये अपनी ससुराल पहुँचा और उसने सास से कहा कि बुधवार के दिन ही पत्नी को लेकर अपने नगर जायेगा।
उस पुरुष के सास-ससुर ने, साले-सालियों ने उसको समझाया कि बुधवार को पत्नी को विदा कराकर ले जाना शुभ नहीं है, लेकिन वह पुरुष नहीं माना। विवश होकर सास-ससुर को अपने जमाता और पुत्री को भारी मन से विदा करना पड़ा ।
पति-पत्नी बैलगाड़ी में चले जा रहे थे। एक नगर से बाहर निकलते ही पत्नी को प्यास लगी। पति लोटा लेकर पत्नी के लिये पानी लेने गया। जब वह पानी लेकर लौटा तो उसने देखा कि उसकी पत्नी किसी पराये पुरुष के लाये लोटे से पानी पीकर , हँस-हँसकर बात कर रही है। वह पराया पुरुष बिल्कुल इसी पुरुष के शक्ल-सूरत जैसा हीं था। यह देखकर वह पुरुष दूसरे अन्य पुरुष से क्रोध में आग-बबूला होकर लड़ाई करने लगा। धीरे-धीरे वहाँ काफी भीड़ इकट्ठा हो गयी । इतने में एक सिपाही भी आ गया। सिपाही ने स्त्री से पूछा कि सच-सच बता तेरा पति इन दोनों में से कौन है ? लेकिन वह स्त्री चुप रही क्योंकि दोनों पुरुष हमशक्ल थे ।
बीच राह में पत्नी को इस तरह लुटा देखकर वह पुरुष मन ही मन शंकर भगवान की प्रार्थना करने लगा कि हे भगवान मुझे और मेरी पत्नी को इस मुसीबत से बचा लो, मैंने बुधवार के दिन अपनी पत्नी को विदा कराकर जो अपराध किया है उसके लिये मुझे क्षमा करो। भविष्य में मुझसे ऐसी गलती नहीं होगी। श्री शंकर भगवान उस पुरुष की प्रार्थना से द्रवित हो गये और उसी क्षण वह अन्य पुरुष कही अंतर्ध्यान हो गया। वह पुरुष अपनी पत्नी के साथ सकुशल अपने नगर को पहुँच गया। इसके बाद से दोनों पति-पत्नी नियमपूर्वक बुधवार प्रदोष व्रत करने लगे। बोलो उमापति शंकर भगवान की जय । हर हर महादेव |
गुरूवार प्रदोष व्रत कथा ( गुरूवार त्रयोदशी ) :
शत्रु विनाशक भक्ति प्रिय,व्रत है यह अति श्रेष्ठ।
बार मास तिथि सब से भी, है यह व्रत अति श्रेष्ठ॥
सूत जी बोले- एक बार इंद्र और वृत्रासुर मे घनघोर युद्ध हुआ। उस समय देवताओं ने दैत्य सेना को पराजित कर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इससे क्रोधित होकर वृत्रासुर स्वयं ही युद्ध करने के लगा। उसकी आसुरी माया को देखकर सारे देवता भयभीत हो गये। सभी देवताओं ने इंद्र के परामर्श से देव गुरु बृहस्पति की प्रार्थना करने लगे। तत्काल देवगुरु बृहस्पति वहाँ प्रकट हुए और बोले- हे देवताओं! मैं तुमलोगों को वृत्रासुर के पूर्व जन्म की कथा सुनाता हूँ।वृत्रासुर बहुत बड़ा तपस्वी था, उसने गंधमान पर्वत पर कई वर्षों तक महादेव की तपस्या कर ,उन्हें प्रसन्न किया है। पूर्व जन्म में वृत्रासुर ,चित्ररथ नाम का राजा था ,तुम्हारे समीपस्थ जो सुरम्य वन है वह उसी राज्य का राजा था। साधु प्रवृति विचारवान महात्मा उस वन में आनंद लेते हैं। यह भगवान के दर्शन की अनुपम भूमि है। एक समय चित्ररथ कैलाश पर्वत पर महादेव के दर्शन हेतु गया। भगवान का स्वरूप और वाम अंग में माता पार्वती को विराजमान देख चित्ररथ हँसा और हाथ जोड़कर शिव शंकर से बोला- हे प्रभो! हम माया मोहित हो विषयों में फँसे रहने के कारण स्त्रियों से वशीभूत रहते हैं किंतु देव लोक में ऐसा कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुआ कि कोई स्त्री सहित सभा में बैठे। चित्ररथ के ये वचन सुनकर सर्वव्यापी भगवान शिव हँसकर बोले कि हे राजन! मेरा व्यवहारिक दृष्टिकोण पृथक हैं। मैंने मृत्युदाता काल कूट महाविष का पान किया है। फिर भी तुम साधारण जनों की भाँति मेरी हँसी उड़ाते हो। तभी पार्वती क्रोधित हो चित्ररथ की ओर देखती हुई बोली- ओ दुष्ट, तूने सर्वव्यापी महेश्वर के साथ मेरी हँसी उड़ाई है, तुझे अपने कर्मों का फल भोगना पड़ेगा।
उपस्थित सभासद महान विशुद्ध प्रकृति के शास्त्र तत्वान्वेषी हैं, और सनक सनंदन सनत्कुमार है, ये सर्व अज्ञान के नष्ट हो जाने पर शिव भक्ति में तत्पर हैं, अरे मूर्खराज! तू अति चतुर है अतएव मैं तुझे वह शिक्षा दूँगी कि फिर तू ऐसे संतों के मजाक का दु;साहस ही न करेगा। अब तू दैत्य स्वरूप धारण कर विमान से नीचे गिरे, तुझे मैं शाप देती हूँ कि अभी पृथ्वी पर चला जा। जब जगदम्बा भवानी ने चित्ररथ को ये शाप दिया तो वह तत्क्षण विमान से गिरकर, राक्षस योनी को प्राप्त हो गया, और प्रख्यात महासुर नाम से प्रसिद्ध हुआ। तवष्टा नामक ऋषि ने उसे श्रेष्ठ तप से उत्पन्न किया और वही महासुर(वृत्रासुर) ने शिव भक्ति में लीन होकर ब्रहचर्य का पालन कर महादेव को प्रसन्न किया। इस कारण से तुम उसे नहीं हरा सकते। अत: वृत्रासुर को युद्ध में जितने के लिये तुमलोगों को गुरुवार त्रयोदशी(प्रदोष) व्रत को करना होगा जिससे भगवान शिव प्रसन्न हो उसके सँहार का आशीर्वाद आप लोगों को प्रदान करें।
गुरु बृहस्पति के वचनों को सुनकर सभी देवताओं ने गुरुवार त्रयोदशी(प्रदोष) व्रत का पालन किया। इससे शिव जी प्रसन्न हुए और महादेव के आशीर्वाद से देवताओं ने वृत्रासुर को परास्त किया । बोलो उमापति शंकर भगवान की जय ।
शुक्रवार प्रदोष व्रत कथा ( शुक्रवार त्रयोदशी ):
प्राचीनकाल की बात है, एक नगर में तीन मित्र रहते थे – एक राजकुमार, दूसरा ब्राह्मण कुमार और तीसरा धनिक पुत्र। राजकुमार व ब्राह्मण कुमार का विवाह हो चुका था। धनिक पुत्र का भी विवाह हो गया था, किन्तु गौना शेष था। एक दिन तीनों मित्र स्त्रियों की चर्चा कर रहे थे। ब्राह्मण कुमार ने स्त्रियों की प्रशंसा करते हुए कहा- ‘नारीहीन घर भूतों का डेरा होता है।’ धनिक पुत्र ने यह सुना तो तुरन्त ही अपनी पत्नी को लाने का निश्चय किया। माता-पिता ने उसे समझाया कि अभी शुक्र देवता डूबे हुए हैं। ऐसे में बहू-बेटियों को उनके घर से विदा करवा लाना शुभ नहीं होता। किन्तु धनिक पुत्र नहीं माना और ससुराल जा पहुंचा। ससुराल में भी उसे रोकने की बहुत कोशिश की गई, मगर उसने जिद नहीं छोड़ी। माता-पिता को विवश होकर अपनी कन्या की विदाई करनी पड़ी|
ससुराल से विदा हो पति-पत्नी नगर से बाहर निकले ही थे कि उनकी बैलगाड़ी का पहिया अलग हो गया और एक बैल की टांग टूट गई। दोनों को काफी चोटें आईं फिर भी वे आगे बढ़ते रहे। कुछ दूर जाने पर उनकी भेंट डाकुओं से हो गई। डाकू धन-धान्य लूट ले गए। दोनों रोते-पीटते घर पहूंचे। वहां धनिक पुत्र को सांप ने डस लिया। उसके पिता ने वैद्य को बुलवाया। वैद्य ने निरीक्षण के बाद घोषणा की कि धनिक पुत्र तीन दिन में मर जाएगा। ब्राह्मण कुमार को यह समाचार मिला तो वह तुरन्त आया। उसने माता-पिता को शुक्र प्रदोष व्रत करने का परामर्ष दिया और कहा- ‘इसे पत्नी सहित वापस ससुराल भेज दें। यह सारी बाधाएं इसलिए आई हैं क्योंकि आपका पुत्र शुक्रास्त में पत्नी को विदा करा लाया है। यदि यह वहां पहुंच जाएगा तो बच जाएगा।’ धनिक को ब्राह्मण कुमार की बात ठीक लगी। उसने वैसा ही किया। ससुराल पहुंचते ही धनिक कुमार की हालत ठीक होती चली गई। शुक्र प्रदोष के माहात्म्य से सभी घोर कष्ट टल गए।
शनिवार प्रदोष व्रत कथा (शनिवार त्रयोदशी ) :
पुरातन कथा है की एक निर्धन ब्राह्मण की स्त्री दरिद्रता से दुखी हो शांडिल्य मुनि के पास जाकर बोली -- हे महामुने ! मैं अत्यंत दुखी हूँ , दुःख निवारण का कोई उपाय बतलाइये | मेरे दोनों पुत्र आपि शरण में है | मेरे ज्येष्ठ पुत्र का नाम धर्म है , जो की राजपुत्र है और छोटे का नाम शुचिव्रत है , अतः हम दरिद्री हैं आप ही हमारा कल्याण कर सकते हैं |
इतनी बात सुन ऋषि ने शिव प्रदोष व्रत करने के लिए कहा | तीनों प्राणी प्रदोष व्रत करने लगे | कुछ समय पश्चात व्रत आया, तब तीनो ने व्रत का संकल्प लिया | छोटा लड़का जिसका नाम शुचिव्रत था , एक तालाब पर स्नान करने को गया तो मार्ग में स्वर्ण कलश धन से भरा हुआ मिला , उसको लेकर वह घर आया , प्रसन्न हो माता से कहा की मा! यह धन मार्ग से प्राप्त हुआ है , माता ने धन देखर कर शिव महिमा का वर्णन किया |
प्रदोष व्रत का उद्यापन :
जो उपासक इस व्रत को ग्यारह या फिर 26 त्रयोदशी तक रखते हैं, उन्हें इस व्रत का उद्यापन विधिवत तरीके से करना चाहिए।
व्रत का उद्यापन आप त्रयोदशी तिथि पर ही करें।
उद्यापन करने से एक दिन पहले श्री गणेश की पूजा की जाती है। और उद्यापन से पहले वाली रात को कीर्तन करते हुए जागरण करते हैं।
अगलर दिन सुबह जल्दी उठकर मंडप बनाना होता है और उसे वस्त्रों और रंगोली से सजाया जाता है।
ऊँ उमा सहित शिवाय नम: मंत्र का 108 बार जाप करते हुए हवन करते हैं।
खीर का प्रयोग हवन में आहूति के लिए किया जाता है।
हवन समाप्त होने के बाद भगवान शिव की आरती और शान्ति पाठ करते हैं।
और अंत में दो ब्रह्माणों को भोजन कराया जाता है और अपने इच्छा और सामर्थ्य अनुसार दान दक्षिणा देते हुए उनसे आशीर्वाद लेते हैं।
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